लेखक : रामावतार कुमावत (RAS)
शीत ऋतु की धूप आश्चर्य से भरी हुई होती है धूप के आश्चर्य इस ऋतु में उजागर होते हैं। जाड़े की धूप, त्वचा में एक नया उजलापन भर दे रखी है।शीत ऋतु की धूप में छत पर जाकर सोना सृष्टि की अनेकों तृष्णा में से एक है।कब आंखें मुंद जाती हैं, शरीर को कब सुखद अहसास होने लगता है पता ही नहीं चलता। देह पर ऊष्मा दीपती है।जिसके रक्त में ही शीत हो,उसके लिए तो यह पर्व है।रातभर की जगी,कम्बल में सिमटी,शीत से अवमानित, प्रेयसी से अनछुई देह तब धूप की संगत में निखरती है।गौर वर्ण पर गौरव कर इठलाती हुई त्वचा,सांवलापन को स्वीकार कर शीतलानी के आगोश में समा जाती है। कहती हुई कि कम से कम यह धूप तो है,जो स्नेह करती है।उसकी प्रीति इतनी मीठी है कि आलस से भर देती है। त्वचा के माध्यम से प्रवेश करती धूप,ऊर्जा और उष्मा का भंडार लेकर शरीर के अंग अंग और रग रग को अल्हादित करती हुई एक उत्सव लगती है। सुनहरी जाड़े की धूप में सुख गहरा जाते हैं।धूप के फूल,रक्त संचार की रीति और प्रीति का वंदनवार करते हैं।त्वचा,धूप स्नान से और सरसों के तैल के उबटन से ही नव यौवना की तरह मुस्कराती है। खुले में धूप में नहाने का सुख अनुभूति तन और मन दोनों को सुंदर बनाती है। प्रकृति ने शीत की रचना इसीलिए की ताकि हम इस उष्मा को भोग सके।उष्मा ही जीवन है। मृत्यु शीत ही होगी जब खून ठंडा होता है।
किसी कवि की कल्पना की जाड़े की धूप,देववस्त्रों-सी अकलंक,कोमल गंधार,वैष्णवी ही रही होगी। और इन अलंकारों से नवाजा होगा।धूप पर कोई कलंक नहीं है,धूप धवल है,उजली है,देवताओं के वस्त्र-सी।शायद हर वो मनुज, जो धूप के सिवा और कोई अंगवस्त्र देह पर पहनता है,उस पर देवऋण चढ़ता होगा।जाड़े की धूप की मिठास और चाहत किसी प्रेयसी सी है।जाड़ों में सूर्य कल्याणमित्र लगता है।सूर्य की रश्मियों में भी मां के आंचल का शकुन मिलता है।यह त्वचा की ऋतु है। त्वचा पर दीपती है।संसार की शिशिर वह शीत ऋतु,त्वचा की वसन्त ऋतु है। सूर्योदय और सूर्यास्त,तीव्रता के साथ होने लगते हैं।इस मौसम में दिन छोटे होते गए हैं,जैसे किसी ने उन्हें कैंची से काट दिया हो। शीत ऋतु में सूर्य का उदय होना और सूर्य का अस्त होना अलग-अलग विचारों की गंगोत्री से लगते हैं। सूर्योदय एक नई आशा उमंग उत्साह लेकर आता है तो सूर्यास्त की सन्ध्या से ही शीत की विरक्ति होने लगती है।तब पूरी अपराह्न,सन्ध्या,रात्रि और भोर सूर्य के लौट आने की आकुल प्रतीक्षा बन जाती है।वह आता है और प्रभा,ऊष्मा,अनुरक्ति से समूचा दिनमान भर जाता है।सन्ध्याओं का शोक,दिन के उत्सवों में बदल जाता है।
“मंदिम मधुर एहसास सी,उड़ते अपने स्पर्शों से यह तन मन को छू जाती है।
यह धूप है दिसम्बर की ध्वल,जार्जेट के पीले पल्ले-सी तन छू जाती है।।”
खगोलीय परिप्रेक्ष्य में सूर्य न कहीं आता है न जाता है,यह तो पृथ्वी है जो अपनी धुरी पर घूम रही है,जिससे वह कभी ओट हो जाता है कभी प्रकट।खगोलीय घटनाओं के परिवर्तन से ऋतु का आगमन होता है। परन्तु धरती के गुरुत्व से बँधे मानुष के लिए तो दिन और रात है,साँझ और भोर है,सूरज का आना और जाना है।जैसे जीवन और मृत्यु में हमारा आना और जाना। स्वर्ण कलश सा सूर्य जगत की शीतलनता दूर करता हुआ पारदर्शी और शीतल संदेश देता है।
“सबकी जीवन धूरी है ऊर्जा, ऊर्जावान हम जीवन पाते।
सनातन से हूं मैं,तुम भी हो मुझ में मुझसे ही ऊर्जा पाते।।”