भारत के पौराणिक इतिहास में रामायण का स्थान सर्वोपरि माना गया है। महर्षि बाल्मीकि द्वारा रचित “रामायण” के चलचित्रिकरण में श्री रामानंद सागर ने 1987 जिस तरह अपने प्राण फूँक दिए थे उस तरह 2023 में स्क्रीन पर ओम राउत “आदिपुरुष” में नहीं फूँक सके बल्कि उन्होंने इस मूवी के माध्यम से सिगड़ी का धुआँ फूँका दिया है जिससे धर्म में गहनता से जुड़े वास्तविक दर्शकों की आँखें धुएँ से भरकर भिंच गयीं हैं और निराश हो गईं हैं।
श्री रामानंद सागर ने श्री राम के विराट और मर्यादित स्वरूप को अरुण गोविल में,सीता माँ के पतिव्रत धर्म के गहन चरित्र को दीपिका चिखलिया में,हनुमान जी के स्वरूप व भक्तिभाव से भरे चरित्र को दारा सिंह में ,लक्ष्मण के रूप में क्रोध और विद्रोह मगर भाई भक्ति में भरे चरित्र में सुनील लहरी जैसे पात्रों को चुना इसी तरह रावण,कुम्भकर्ण,शूर्पणखा,विभीषण जटायु, जामवंत,बाली, सुग्रीव व अन्य पौराणिक पात्र सब वास्तविक छवि के बेहद क़रीब जाकर गढ़े गए थे।
वहीं आज आदिपुरुष देखते वक़्त वो सभी पात्र जैसे नेत्रों के सामने साक्षात आकर खड़े हो गए थे। रामानंद सागर द्वारा निर्देशित रामायण में महीन से महीन संवादों और उच्चारणों को बाल्मीकि के ही रामायण ग्रन्थ की भाँति महानता के विशेषणों से सुसज्जित कर उकेरा गया था। हल्की भाषा-संवाद या भाव-भंगिमा का कहीं कोई स्थान नहीं था न ही पौराणिकता को संशोधित कर पेश करने की पेशकश हुई थी।
78-कड़ियों के इस धारावाहिक का मूल प्रसारण दूरदर्शन पर 25 जनवरी 1987 से 31 जुलाई 1988 तक रविवार के दिन सुबह 9:30 बजे किया गया। जिसकी स्मृति 70-80 के दशक में जन्मे लोगों के मन में आज भी विद्यमान है। उस दौरान जैसे कर्फ़्यू सा माहौल बाज़ारों में नज़र आता था। बड़े बुज़ुर्ग तो हाथ जोड़कर रामायण के शुरू होने की प्रतीक्षा करते थे उस भाव और प्रभाव की कमी आदिपुरुष में नज़र आई।
आज मैंने उसी मर्म व धर्म भाव के साथ “आदिपुरुष” देखी।
एक समीक्षक,हिलव्यू समाचार संपादक, पत्रकार या साहित्यकार या केवल हिन्दू धर्म की होने की दृष्टि से बिल्कुल नहीं बस मन के सहज भाव व उत्साह के साथ सिनेमाहॉल में पहुँची लेकिन फ़िल्म के प्रदर्शन व संवाद ने समीक्षा करने पर मज़बूर कर दिया।
फ़िल्म शुरू होने के 15 मिनट में ही आदिपुरुष मूवी के आधुनिक स्वरूप और 3 D की एनक ने इसे वास्तविकता से बहुत दूर ले जाकर खड़ा कर दिया कि मन में घुटन भर आयी। 2 घण्टे 59 मिनट युगों जैसे लगने लगे। ऐसा लगा मानो निर्माता ओम राउत ने बिगड़े नंबर का चश्मा पहना दिया हो.……हाँ! केवल हिन्दू दृष्टिकोण से इसे देखते हैं तो श्रीराम का जयकारा लगाने के लिए मंदिर जैसा ही एक माहौल मात्र बन जाता है थियेटर में यह मूवी लगना, मगर आज की पीढ़ी के सामने रामायण के माध्यम से धर्म को प्रस्तुत करने का अगर यही माध्यम है तो मुझे अफ़सोस और शिक़ायत है निर्माता ओम राउत से….. क्यों…..अब यह भी बताती ही चलूँ….
रावण के स्वरूप में सैफअली ख़ान का चयन कई प्रश्न खड़े करता है क्योंकि–
◆रावण की वेशभूषा,चरित्र चित्रण और भाव भंगिमा रावण
जैसे पौराणिक पात्र की नहीं बल्कि मोहम्मद गौरी या
अलाउद्दीन खिलजी जैसी नज़र आई।
◆ रावण के हाथ जोड़ने का जहाँ-जहाँ दृश्य दिखाया गया
वहाँ-वहाँ सैफ़ अली ख़ान ने दोनों हाथों की कनिष्ठा
अंगुलियों को हर बार क्रॉस में रखा या उबड़-खाबड़ रखा
जबकि हिन्दू पौराणिक सभ्यता व संस्कृति के आधार पर
हाथ जोड़ने के दौरान चारों अंगुलियाँ व अँगूठा एक दूसरे
से स्पर्श होना चाहिए। यह असमंजस से भरा था मेरे लिए
कि क्या निर्माता-निर्देशक को इस बारीक़ी का ध्यान नहीं
रखना चाहिए था?
◆ रावण की लंका सोने की जगह लोहे की लंका नज़र आई।
यहाँ बाहुबली फ़िल्म जैसे सुनहरे सेटअप की भव्यता और
भाव का अभाव लगा।
श्रीराम के स्वरूप में शारीरिक सौंदर्य,सौष्ठव के आधार पर प्रभास का चयन प्रशंसनीय है लेकिन बाहुबली के प्रभास का अभिनय यहाँ राम चरित्र में कमज़ोर नज़र आया
◆राम के स्वरूप में प्रभास का व्यक्तित्व अरुण गोविल के
व्यक्तित्व के सामने फीका लगा।
◆श्री राम के शब्द-संवाद और भाव-भंगिमा उनके व्यक्तित्व
।को विराटता की ओर ले जाने में सफल नहीं हुए।
◆सीता माँ के चरित्र व व्यक्तित्व में कृति सेनन सफल रहीं।
सौम्यता,शालीनता और पतिव्रता भाव का जोड़ उनके
अभिनय में नज़र आया।
◆अशोक वाटिका में सीता माँ के पास भगवा चुनरी कैसे और
कब आयी जबकि उन्होंने अपहरण के दौरान उसे धारण
नहीं किया हुआ था और रावण की किसी भेंट को उन्होंने
स्वीकार नहीं किया था फिर यह चुनरी एकदम कैसे उन्हें
ओढ़े हुए दिखाया गया।यहाँ दीपिका चिखलिया की वेशभूषा
आँखों के आगे तैर गयी कि काश वही वेशभूषा रहती।
◆लक्ष्मण के चरित्र को उतना नहीं उभारा गया जितना कि
उभारा जाना चाहिए था।
◆ मुख्य पात्र श्रीराम को राघव, सीता माँ को जानकी संबोधन
करना प्रासंगिक हो सकता है क्योंकि इस युग में यह
पर्यायवाची शब्द चलन में भी हैं और इनका इतिहास और
अर्थ आज की पीढ़ी के समक्ष भी है लेकिन लक्ष्मण को यहाँ
केवल और केवल शेष के नाममात्र से ही संबोधित करना
थोड़ा ज़्यादा ही संशोधित करने का मामला लगा।
◆ द केरला स्टोरी की तरह इसमें भी गाने या संगीत की
ज़्यादा आवश्यकता नहीं थी।
◆ भजन या चौपाई के माध्यम से मुख्य स्त्री पात्र सीता माँ व
मुख्य पुरुष पात्र श्री राम का भाव दर्शाना इस फ़िल्म की
पौराणिक भव्यता को और बढ़ा देता बनिस्पत जो गाने
फिल्माए गाये उनके स्थान पर।
फ़िल्म आदिपुरुष के संवाद लेखन में मनोज मुंतशिर पूरी तरह असफल हुए हैं। हल्के व अनर्गल डायलॉग ने फ़िल्म की गरिमामयी छवि को हल्का बना दिया है जैसे इस फ़िल्म के कुछ डायलॉग्स—
हनुमान जी कहते हैं कि-
"कपड़ा तेरे बाप का,तेल तेरे बाप का,जलेगी भी
तेरे बाप की।"
मेघनाथ हनुमान जी से कहते हैं कि-
“तेरी बुआ का बगीचा है क्या,जो हवा खाने चला आया।”
अंगद कहते हैं कि-
“जो हमारी बहनों को हाथ लगाएंगे हम उनकी लंका लगा देंगे।”
मेघनाद कहते हैं कि-
“मेरे एक सपोले ने तुम्हारे शेषनाग को लंबा कर दिया अभी तो पूरा पिटारा भरा पड़ा है।”
मंदोदरी कहतीं हैं कि-
“आप अपने काल के लिए कालीन बिछा रहे हैं।”
इससे बेहतर डायलॉग आजकल के टीवी शो में आ जाते हैं अगर वेब सीरीज़ के भद्देपन और ग़ाली गलौच को अलग करके उनके कुछ संवाद सुने तो वो भी आदिपुरुष मूवी से ज़्यादा असर कारक और भारी महसूस होंगे। ओम राउत ने हिन्दू धर्म के पौराणिक इतिहास को गम्भीरता से न लेकर जल्दीबाज़ी का परिचय दिया है जैसे किसी होड़ में हिस्सा ले रहे हों।
श्री रामानंद सागर के रामायण सिरियल में सागर जैसी ही गहराई थी और निर्माता ओम राउत के इस प्रदर्शन में उतना ही उतावलापन और उथलापन नज़र आया। वास्तविक रामायण के साथ किसी भी तरह के संशोधन की आवश्यकता ही कहाँ थी पौराणिक व धार्मिक परिचय अपनी वास्तविकता से ओतप्रोत होकर ही खुली हवा में साँस लेते नज़र आने चाहिए।
अधिकांश दर्शक निराश हुए हैं और ख़ुद को ठगा महसूस कर रहे हैं। श्री रामानंद सागर की रामायण की छवि आँखों में बसाए आने वाले दर्शक आदिपुरुष को समय व धन की बर्बादी का माध्यम तक बता गए। देश की भावी पीढ़ी यह फ़िल्म न ही देखे तो ही अच्छा होगा अन्यथा रामायण के असली स्वरूप के साथ भावी पीढ़ी कभी नहीं जुड़ पाएगी।
समीक्षक
शालिनी श्रीवास्तव
संपादक हिलव्यू समाचार
अधिस्वीकृत संपादक राजस्थान सरकार